Friday 25 July 2014

भीड़ ने तोड़ा सोमवारी का रिकार्ड

डेढ़ लाख से अधिक कांवरिये पहुंचे देवघर
देवघर
बाबाधाम में श्रावणी मेला पूरे उफान पर है. शिवभक्तों की दीवानगी का आलम यह है कि भीड़ ने सोमवारी का भी रिकार्ड तोड़ दिया है. कतार 13 किमी लंबी हो गयी. आस्था के आगे प्रशासनिक व्यवस्था कम पड़ गयी. बुधवार देर रात से कांवरियों की कतार लंबी होती चली गयी. गुरुवार देर शाम तक तकरीबन 80 हजार कांवरियों ने जलार्पण कर लिया. लेकिन प्रवेश कार्ड के रिकार्ड बताते हैं कि बाबाधाम में डेढ़ लाख से अधिक कांवरिये आ चुके हैं. जाहिर है बाबा मंदिर की क्षमता अधिक से अधिक 80 से 90 हजार के जलार्पण की है. लगभग 40 से 50 हजार कांवरिये गुरुवार को जलार्पण से वंचित रह जायेंगे. यानी इतने लोगों को शुक्रवार का इंतजार करना होगा. 
रह-रह कर मचती रही अफरा-तफरी
लंबी कतार के कारण पुलिस बल व प्रशासनिक व्यवस्था कम पड़ गयी है. सभी प्वाइंट पर पुलिस बलों की व्यवस्था नहीं हो सकी है.  इस कारण रह-रह कर कतार में अफरा-तफरी मचती रही. जब कतार थोड़ी देर रूक जाती थी तो कांवरिये सड़क पर ही बैठ जाते थे, कुछ खड़े रहते थे. जैसे ही कतार चलती थी, लोगों में आगे बढ़ने की होड़ सी मच जाती थी, इसी कारण अफरा-तफरी मचती रही जिसे नियंत्रित करने वाला कोई नहीं था. 
कतार में महिला और बच्चे   रहे परेशान
व्यवस्था का आलम यह है कि लाख परेशानी और लोगों की शिकायत के बाद भी कांवरियों की एक ही कतार लगायी जा रही है जिसमें महिलाएं और बाल कांवरियों को काफी परेशानी हो रही है. अफरा-तफरी में ये पीछे छूट जाते हैं. यही कारण है कि जलार्पण के लिए इन लोगों को कतार में तकरीबन 15 से 20 घंटे तक खड़ा होना पड़ रहा है. फिर भी कइ भक्तों की बारी नहीं आयी. अब वे शुक्रवार के इंतजार में हैं.
आज भी बंद रहा शीघ्र दर्शनम 
: जिला प्रशासन ने अगले आदेश तक शीघ्र दर्शनम पास पर रोक लगा दिया गया है. इस कारण गुरुवार को भी शीघ्र दर्शनम की सुविधा का लाभ कांवरिये नहीं उठा सके .शीघ्र दर्शनम के लिए भी कांवरिये भटकते रहे. 
रूट लाइनिंग में बरमसिया के बाद व्यवस्था नदारद
रूट लाइनिंंग में बरमसिया तक तो कोरिडोर, पेयजल, बिजली, सूचना केंद्र, अस्थायी अस्पताल आदि की व्यवस्था है. लेकिन शुरू के दिनों से कतार बरमसिया, कुमुदिनी घोष रोड़, नंदन पहाड़, बेलाबगान होते हुए डढ़वा नदी और गुरुवार को तो चांदपुर तक पहुंच गयी. इस रूट में कहीं भी पानी, रोशनी, कोरिडोर, शौचालय, अस्थायी अस्पताल की व्यवस्था नहीं है. 

 यहां तक कि सूचना संप्रेषण की भी व्यवस्था नहीं है. इस कारण कांवरियों को काफी फजीहत झेलनी पड़ रही है. लंबी कतार देख एसडीओ जय ज्योति सामंता डढ़वा नदी के पास कतार सुव्यवस्थित करने पहुंचे. घंटों वहां खड़े होकर उन्होंने कांवरियों के रूट लाइनिंग को दुरुस्त करवाया. 

Wednesday 23 July 2014

भारत का राष्ट्रीय ध्वज : 22 जुलाई को अपने प्यारा तिरंगा झंडा का जन्मदिन है।

भारत का  राष्ट्रीय ध्वज : जिसे तिरंगा भी कहते हैं, तीन रंग की क्षैतिज पट्टियों के बीच नीले रंग के एक चक्र द्वारा सुशोभित ध्वज है। *तिरंगा झंडा* के निर्माणकर्ता *पिंगलि वेंकय्या*  हैं। इसे १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व २२ जुलाई १९४७ को आयोजित भारतीय संविधान-सभा की बैठक में अपनाया गया था। इसमें तीन समान चौड़ाई की क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिनमें सबसे ऊपर केसरिया, बीच में श्वेत और नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी है। ध्वज की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात २:३ है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग  का एक चक्र है जिसमें २४ अरे होते हैं। इस चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है व रूप सम्राट अशोक की राजधानी सारनाथ में स्थित स्तंभ के शेर के शीर्षफलक के चक्र में दिखने वाले की तरह होता है।
ध्वज का हेराल्डिक वर्णन इस प्रकार से होता है :- महात्मा गांधी जी ने  ने सबसे पहले 1921 में काँग्रेस  के अपने झंडे की बात की थी। इस झंडे को पिंगली वेंकैय्या  ने डिजाइन किया था। इसमें दो रंग थे लाल रंग  हिन्दुओं के लिए और हरा रंग मुस्लिमों के लिए। बीच में एक चक्र था। बाद में इसमें अन्य धर्मो के लिए सफ़ेद रंग जोड़ा गया। स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ दिन पहले संविधान सभा नेराष्ट्रध्वज को संशोधित किया। इसमें चरखे की जगह अशोक चक्र  ने ली। इस नए झंडे की देश के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने फिर से व्याख्या की। 21 फीट गुणा 14 फीट के झंडे पूरे देश में केवल तीन किलों के ऊपर फहराए जाते हैं। मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित किला उनमें से एक है। इसके अतरिक्त कर्नाटक का नारगुंड किले और महाराष्ट्र का पनहाला किले पर भी सबसे लम्बे झंडे को फहराया जाता है।

तिरंगे का विकास :- यह ध्वज भारत की स्वतंत्रता के संग्राम काल में निर्मित किया गया था। १८५७ में स्वतंत्रता के पहले संग्राम के समय भारत राष्ट्र का ध्वज बनाने की योजना बनी थी, लेकिन वह आंदोलन असमय ही समाप्त हो गया था और उसके साथ ही वह योजना भी बीच में ही अटक गई थी। वर्तमान रूप में पहुंचने से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय ध्वज अनेक पड़ावों से गुजरा है। इस विकास में यह भारत में राजनैतिक विकास का परिचायक भी है।

कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं :- प्रथम चित्रित ध्वज १९०४  में स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता द्वारा बनाया गया था। ७ अगस्त १९०६ को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में इसे कांग्रेस के अधिवेशन में फहराया गया था। इस ध्वज को लाल, पीले  और हरे  रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था। ऊपर की ओर हरी पट्टी में आठ कमल थे और नीचे की लाल पट्टी में सूरज  और चाँद  बनाए गए थे। बीच की पीली  पट्टी पर *वंदेमातरम्* लिखा गया था।

द्वितीय ध्वज को पेरिस में मैडम कामा और १९०७  में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था। कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार यह १९०५  में हुआ था। यह भी पहले ध्वज के समान था; सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपर की पट्टी पर केवल एक कमल था, किंतु सात तारेसप्तऋषियों  को दर्शाते थे। यह ध्वज बर्लिन  में हुए समाजवादी सम्मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।
१९०७  में भारतीय राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड़ लिया। डॉ. एनी बेसेंट  और लोकमान्य तिलक  ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान तृतीय चित्रित ध्वज को फहराया। इस ध्वज में ५ लाल और ४ हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्ततऋषि के अभिविन्यास में इस पर सात सितारे बने थे। ऊपरी किनारे पर बायीं ओर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।
कांग्रेस के सत्र बेजवाड़ा ( वर्तमान विजयवाड़ा ) में किया गया यहाँ आंध्र प्रदेश के एक युवक पिंगली वेंकैय्या ने एक झंडा बनाया और चौथा चित्र  गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्वं करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।
वर्ष १९३१ तिरंगे के इतिहास में एक स्मरणीय वर्ष है। तिरंगे ध्वज को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया और इसे राष्ट्र-ध्वज के रूप में मान्यता मिली। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया था कि इसका कोई साम्प्रदायिक महत्त्व नहीं था। 
२२ जुलाई १९४७  को संविधान सभा ने वर्तमान ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को स्थान दिया गया। इस प्रकार काँग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंतत: स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना।
नियम व विनियम :- २६ जनवरी २००२ विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्वज को किस प्रकार फहराया जाए :-
१ - राष्ट्रीय ध्वज को शैक्षिक संस्थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्काउट शिविरों आदि) में ध्वज को सम्मान की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्वज-आरोहण में निष्ठा की एक शपथ शामिल की गई है।
२ - किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्थान के सदस्य द्वारा राष्ट्रीय ध्वज का अरोहण प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्यथा राष्ट्रीय ध्वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।
३ - नई संहिता की धारा ( २ ) में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है। 
४ - इस ध्वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।
५ - इस ध्वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।
६ - किसी अन्‍य ध्वज या ध्वज पट्ट को राष्ट्रीय ध्वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्वज को वंदनवार, ध्वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज भारत के नागरिकों की आशाएं और आकांक्षाएं दर्शाता है। यह देश के राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।

Friday 18 July 2014

अब इंटरनेट पर भी बाबा की पूजा-अर्चना व जलार्पण



मंदिर प्रबंधन बोर्ड ने की तैयारी
* बाबाधाम डॉट ओआरजी साइट में मिली सुविधा
* घर बैठे ही भक्त लेंगे पूजा-अर्चना का आनंद 


अब देश-विदेश के भक्त घर बैठे ही श्रावणी मेले में बाबा बैद्यनाथ पूजा-अर्चना व जलार्पण के वीडियो को इंटरनेट पर देख सकेंगे. इसके लिए मंदिर प्रबंधन बोर्ड की ओर से तैयारी की जा रही है. बोर्ड के सचिव सह डीसी अमीत कुमार ने बताया कि बाबाधाम डॉट ओआरजी साइट खोलते ही मंदिर में पूजा-पाठ से संबंधित जानकारी, फोटो व वीडियो उपलब्ध होगी.
 इसे अंतिम रूप दिया जा रहा है. सब कुछ ठीक रहा तो शुक्रवार से ही यह दिखने लगेगा. इसमें बाबा पर जलार्पण, कांवरियों की कतारबद्ध व्यवस्था, मानसरोवर तट, बीएड कॉलेज परिसर, तिवारी चौक, जलसार रोड सहित कुल 15 जगहों को लाइव देखा जा सकता है. इससे भक्तों के अलावा पर्यटक भी जानकारी हासिल करेंगे. 


* कांवरियों की कतार हो जाती है आठ किमी लंबी
* जब 5 से 10 घंटे लाइन में लगना पड़ता है तो टाइम स्लॉट प्रवेश कार्ड का क्या औचित्य?
* भेड़-बकरी की तरह महिला,  * बच्चे व पुरुष लगाये जाते हैं एक  ही कतार में
* विथ फैमिली पूजा का दावा खोखला
* मानसिंघी फुटओवर ब्रिज के बाद ही कांवरियों को मिलती है राहत

श्रावणी मेला : टाइम स्लॉट प्रवेश कार्ड का प्रबंधन फेल

भक्त परेशान, कतार में हो रही अफरा-तफरी


पिछले वर्ष की तरह इस बार भी टाइम स्लॉट प्रवेश कार्ड का प्रबंधन बिल्कुल ही फेल साबित हो रहा है. क्योंकि इस सिस्टम से भी कांवरियों की कतार लंबी लग रही है. तकरीबन आठ किमी लंबी कतार हो जा रही है. औसतन पांच से दस घंटे कांवरियों को कतार में खड़ा होना पड़ रहा है. इस कारण भक्त परेशान हैं. कतार में रोजाना अफरा-तफरी व अव्यवस्था दिख रही है. टाइम स्लॉट प्रवेश कार्ड सिस्टम लागू करने के पीछे उद्देश्य था कि कांवरियों को लंबी कतार से मुक्ति मिलेगी. उन्हें सीधे जलसार मोड़ में कतार में लगना होगा और वे कम समय में बाबा को जलार्पण कर सकेंगे. जो टाइम उन्हें कार्ड में दिया जायेगा उस अनुरूप वे अपनी खरीदारी, अपने पुरोहितों से जल का संकल्प या आराम कर सकेंगे. लेकिन जिला प्रशासन का यह दावा कि टाइम स्लॉट सिस्टम बेहतर ढंग से काम कर रहा है, श्रद्धालु आराम से जलार्पण कर रहे हैं, खोखला साबित हो रहा है. 

* कार्ड ले सीधे कतार में लगते हैं कांवरिये

जब भक्तों को प्रवेश कार्ड मिल जाता है तो उन्हें जलसार मोड़ में इंट्री नहीं मिलती है वे कतार की अंतिम छोर यानी बीएड कालेज, नंदन पहाड़ या बरमसिया में जाकर कतार में खड़े होते हैं. वहां से उन्हें जलसार मोड़ और नेहरू पार्क तक पहुंचने में कई घंटे लग जाते हैं. कार्ड में लिखे टाइम का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. कार्ड को देखने वाला कतार में कोई नहीं है, कांवरियों की काउंसेलिंग करना वाला कोई नहीं है. इस कारण कार्ड लेते ही कांवरिये कतार में खड़े हो जाते हैं. क्योंकि वे देखते हैं कि बड़े पंडालों में कोई वेट नहीं कर रहा है. जो भी आ रहे हैं सभी कतार में खड़े हो रहे हैं. इस कारण कतार में देखा जाता है कि जलसार मोड़ के पास जो कांवरिया कतार में खड़ा है वह दोपहर 12 से 3 बजे का कार्ड लिये हैं और जो बीएड कॉलेज या बरमसिया में खड़े हैं वह सुबह तीन से पांच बजे का कार्ड लिये है। 

* सिस्टम तो लागू किया लेकिन प्रबंधन फेल

जिला प्रशासन ने टाइम स्लॉट सिस्टम लागू कर तो कर दिया लेकिन यह फेल हो रहा है. क्योंकि नेहरू पार्क का स्कैनर पहले दिन से ही खराब है. कई काउंटर खाली रहते हैं. सरासनी में एक कांवरिया जिसने प्रवेश कार्ड लिया, उस वक्त दिन के 11 बज रहे थे लेकिन उसे जो कार्ड जारी किया गया, उसमें सुबह 9 से 11 बजे का टाइम स्लॉट मिला था. इसी से पता चलता है कि प्रशासन सिर्फ कार्ड जारी कर रहा है या उसमें दिये टाइम का कोई महत्व है.




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Tuesday 15 July 2014

राम भक्त हनुमानजी जन्म की कथा, जिनका आज जन्मदिन है

राम भक्त, पवनपुत्र हनुमान, जिनका आज जन्मदिन है. अंजना और केसरी के लाल हनुमान के जन्मदिन को हिंदू धर्म के अनुयायी हनुमान जयंती के रूप में बड़े धूमधाम से मनाते हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन से जुड़ी रामायण, जो हिन्दुओं का एक पवित्र ग्रंथ है, में हनुमान को भी एक अभिन्न हिस्से के रूप में पेश किया गया है, इसलिए इनसे संबंधित घटनाओं, शिव के अवतार के रूप में इनका जन्म और बालपन में इनकी अठखेलियों के बारे में आपने कई बार सुना या पढ़ा होगा. लेकिन आज हम आपको उनकी मां अंजना और उनके पिता की मुलाकात कैसे हुई, कैसे हनुमान शिव के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए इससे संबंधित पुराणों में लिखी एक बड़ी रहस्यमय घटना से अवगत करवाने जा रहे हैं.
हनुमान का जन्म कैसे हुआ, ये जानने के लिए पहले हम उनके माता-पिता के विवाह की भेंट कैसे हुई इस बारे में जान लेते हैं. हनुमान के जन्म की दैवीय घटना की शुरुआत होती है ब्रह्मा, जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, के दरबार से.  स्वर्ग में स्थित उनके महल में हजारों सेविकाएं थीं, जिनमें से एक थीं अंजना. अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा.
अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें. ब्रह्मा ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें.

अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की. अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए. बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे. मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी. मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा’. अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर ब्रह्म देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी. ब्रह्म देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी. शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी.
ब्रह्मा की बात मानकर अंजना धरती पर चली गईं और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं. जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं. जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया. अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं. अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था.
अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं. अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया.
भगवान शिव के भक्त होने के कारण केसरी और अंजना अपने आराध्य की तपस्या में मग्न थे. तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा. अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें.
‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए. इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और किसी दूसरे कोने में महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए यज्ञ कर रहे थे. अग्नि देव ने उन्हें दैवीय ‘पायस’ दिया जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस पायस की कटोरी में थोड़ा सा पायस अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया. अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया और कुछ ही समय बाद उन्होंने वानर मुख वाले हनुमान जी को जन्म दिया.
साभार : दैनिक जागरण 
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